अर्गला स्तोत्र के पाठ से होंगी सभी मनोकामनाएं पूर्ण l

अर्गला स्तोत्र के पाठ से होंगी सभी मनोकामनाएं पूर्ण l
मानव जीवन के कर्मों को सिद्ध करने में देवी की उपासना का महत्व बहुत अधिक है। दुर्गा ही वो देवी है जिन्होंने समस्त जगत को उत्पन्न किया है। इसलिए ही मां का एक नाम जगतजननी भी है। जिस प्रकार मां अपनी संतान की सभी इच्छाएं पूर्ण करती है। उसी प्रकार जगतजननी मां भी अपने बच्चों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती है। देवी को प्रसन्न करने के लिए अनेकों पाठ किए जाते है। लेकिन क्या आप जानते है कि मां का अर्गला स्तोत्र विशेषतौर पर हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला है।
समस्त मनोरथ पूर्ति में देवी की उपासना का महत्व बहुत अधिक है। दुर्गा ही वो देवी है जिन्होंने समस्त जगत को उत्पन्न किया है। इसलिए ही मां का एक नाम जगतजननी भी है। जिस प्रकार मां अपनी संतान की सभी इच्छाएं पूर्ण करती है।

उसी प्रकार जगतजननी मां भी अपने बच्चों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती है।  देवी को प्रसन्न करने के लिए अनेकों पाठ किए जाते है। लेकिन क्या आप जानते है कि मां का अर्गला स्तोत्र विशेषतौर पर हमारी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला है।

अर्गला का अर्थ होता है- अग्रणी। दुनिया में कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान देवी न करती हों। अर्गला स्तोत्र के मंत्र ही सिद्ध हैं। सभी मंत्रों में हम देवी भगवती से कामना करते हैं कि हमे रूप दो, जय दो, यश दो और शत्रुओं का नाश करो। मनुष्य जिन जिन कार्यों की अभिलाषा करता है, वे सभी कार्य अर्गला स्तोत्र के पाठ मात्र से पूरी हो जाती हैं।

अर्गला स्तोत्र पाठ विधि
सरसो या तिल के तेल का दीपक जलाएं।
चामुण्डा देवी का ध्यान करें। उनसे संवाद करें और पुकारें।
देवी भगवती के अर्गला स्तोत्र का संकल्प लें और अपनी इच्छा देवी के समक्ष व्यक्त करें।
अर्गला स्तोत्र में तांत्रिक नहीं वरन मंत्र शक्ति का प्रयोग करें।
अर्गला स्तोत्र का यथा संभव तीन बार या सात बार पाठ करें।
यज्ञ काले तिलों से होगा। मधु यानी शहद की आहूति भी होगी।
अर्गला स्तोत्र का प्रात: काल या मध्य रात्रि पर पाठ करें।
अर्गला स्तोत्र ध्यानं

ॐ बन्धूक कुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीं।
स्फुरच्चन्द्रकलारत्न मुकुटां मुण्डमालिनीं।।
त्रिनेत्रां रक्त वसनां पीनोन्नत घटस्तनीं।
पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात्।।
दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानितां।
अर्गला स्तोत्र पाठ

ॐ नमश्चण्डिकायै मार्कण्डेय उवाच

ॐ जयत्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि।

जय सर्व गते देवि काल रात्रि नमोस्तुते।।1।।

मधुकैठभविद्रावि विधात्रु वरदे नमः।

ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।।2।।

दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।3।।

महिषासुर निर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।4।।

धूम्रनेत्र वधे देवि धर्म कामार्थ दायिनि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।5।।

रक्त बीज वधे देवि चण्ड मुण्ड विनाशिनि।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।6।।

निशुम्भशुम्भ निर्नाशि त्रैलोक्य शुभदे नमः

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।7।।

वन्दि ताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्य दायिनि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।8।।

अचिन्त्य रूप चरिते सर्व शतृ विनाशिनि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।9।।

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।10।।

स्तुवद्भ्योभक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधि नाशिनि

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।11।।

चण्डिके सततं युद्धे जयन्ती पापनाशिनि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।12।।

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवी परं सुखं।

रूपं धेहि जयं देहि यशो धेहि द्विषो जहि।।13।।

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियं।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।14।।

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।15।।

सुरासुरशिरो रत्न निघृष्टचरणेम्बिके।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।16।।

विध्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।17।।

देवि प्रचण्ड दोर्दण्ड दैत्य दर्प निषूदिनि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।18।।

प्रचण्ड दैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणतायमे।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।19।।

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्र संस्तुते परमेश्वरि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।20।।

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।21।।

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।22।।

इन्द्राणी पतिसद्भाव पूजिते परमेश्वरि।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।23।।

देवि भक्तजनोद्दाम दत्तानन्दोदयेम्बिके।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।24।।

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीं।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।25।।

तारिणीं दुर्ग संसार सागर स्याचलोद्बवे।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।।26।।

इदंस्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः।

सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभं।।27।।

।।इति श्री अर्गला स्तोत्रं समाप्तम्।।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आदित्य ह्रदय स्तोत्र हर क्षेत्र में चमत्कारी सफलता देता है। पढ़ें आदित्य ह्रदय स्रोत निरंतर :

राधा अष्टमी के व्रत के साथ ही जन्माष्टमी का व्रत माना जाता है पूर्ण, जानिये व्रत विधि और कथा

शिव शंकर भगवान का भैरव रूप में अवतार - एक कथा